स्वर्गीय मनोहर पर्रिकर के बहाने
दृढ़ इच्छा शक्ति का इस्तेमाल या फिर ठीक से इच्छा करना
हमारे सामने राजनीति के दो चेहरे हैं – (एक) महात्मा गांधी, (दो) मनोहर पर्रिकर. दोनों ही ईमानदार, दोनों ही सादगी से जीने वाले और दोनों ही आम आदमी से जुड़े हुए. अन्तर है तो मात्र इतना गाँधी ने इच्छा की और हालात ऐसे बनते चले गए कि अंत तक देश राजनीति के स्तर पर अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद हो गया. दूसरी ओर मनोहर पर्रिकर ने दृढ़ इच्छा शक्ति का इस्तेमाल किया और पैंक्रियाटिक कैंसर के चलते काल कवलित हो गए. क्यों?
इसे समझने के लिए हमें जीवन की बायोलाजी को समझना होगा. हमारे ज़िंदा रहने के लिए तीन सिस्टम्स जिम्मेदार हैं – (एक) इम्यून सिस्टम, (दो) एण्डोक्राइन सिस्टम और (तीन) नर्वस सिस्टम. इनका हैड क्वार्टर मस्तिष्क में है. मस्तिष्क का काम है इन तीनों सिस्टम्स को इंडीपैंडेंटली काम करने दे और तीनों के बीच को-आर्डिनेशन बनाए रखे.
इसी प्रकार हम दो ब्रहमाण्डों के बीच रहते हैं. एक जो हमारे शरीर के भीतर है. दूसरा जो हमारे शरीर के बाहर है. बाहर के ब्रहमाण्ड से हमारे ऊपर लगातार वायरस और बीमारियों का ख़तरा मंडराता रहता है. इसी प्रकार हमें अवसरों के रूप में लगातार चुनौतियाँ मिलती रहती हैं. दूसरी ओर हमारे भीतर के ब्रहमाण्ड से शरीर की आवश्यकताओं और पीड़ा के संदेश मिलते रहते हैं. मस्तिष्क का काम है इन सबको आवश्यकता के अनुसार प्रायोरिटी देना. अर्थात किसको तुरंत करना है और किसको लटकाया जा सकता है?
ये सभी काम मस्तिष्क हमारी बिना जानकारी में आए चुपचाप करता रहता है. ज्यादा से ज्यादा हमें कभी सिर भारी लगता है, कभी हल्का लगता है या कभी सिर में दर्द महसूस होता है. वास्तव में मस्तिष्क को स्मृति और निर्णय लेने के लिए जाना जाता है. जिसकी जितनी बढ़िया स्मृति होती है जो जितना सटीक निर्णय ले पाता है उसी को हम बिर्लिएंट अथवा जीनियस कहते हैं.
जब हम दृढ़ इच्छा शक्ति का इस्तेमाल करते हैं तब हम मस्तिष्क पर इच्छा करने का अतिरिक्त बोझ डालते हैं जिसकी कीमत होती है – हमारे जो तीनों सिस्टम्स हैं उनको गड़बड़ा देना. कुछ भी हो सकता है – आर्थराइटिस से लेकर कैंसर और उससे आगे कोमा में चले जाना. यह हमारे व्यक्तित्व की संरचना पर निर्भर करता है. जैसे पर्रिकरजी को खाने का शौक था. इसलिए वह पैंक्रियाटिक कैंसर की चपेट में आ गए. जैसे-जैसे वह दृढ़ इच्छा शक्ति का इस्तेमाल करते गए वैसे-वैसे उनकी बीमारी और अधिक मृत्यु के समीप ले जाती गई. अंत में वह असमय कालकवालित हो गए.
रहा एडवांस मेडिकल का प्रश्न तो वह व्यक्ति को संपूर्ण इकाई नहीं मानता. उसके लिए वह एक मशीन के सिवाय कुछ नहीं है. आप का प्रश्न होगा कि वह तो मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों की भी सहायता लेता है. यह सही है लेकिन उनमें से कितने लोग भविष्य का निर्माण करने की सामर्थ्य रखते हैं? नतीजा? चिकित्सकों की देखरेख में जीना या फिर मृत्यु का वरण करना.
दूसरी ओर, हमारा शरीर इच्छा करे, हृदय उसको सम्पूर्णता के साथ महसूस करे. फिर मस्तिष्क को सौंप दे. जो दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी ने किया. तब हमारा मस्तिष्क ऐसा निर्णय लेने में समर्थ है जिसको वास्तविकता में बदलने के लिए सारी दुनिया के संसाधन खिंचे चले आते हैं. याद कीजिए जब लड़कियाँ गाँधीजी के तलुओं में घी की मालिश करतीं थीं तो वह क्या कहते थे? मालिश ऐसे करो कि मेरी “इच्छा” और बलवती हो जाए और देश अंग्रेजों की गुलामी से जल्दी से जल्दी आज़ाद हो जाए.
इसी प्रकार राजनेताओं की परेशानी होती है कि वे अपने भीतर गोताखोरी नहीं करते. यह तो पता नहीं कैसे हमारे चौकीदार प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जितने बढ़िया वक्ता हैं उससे कहीं बेहतर अपने भीतर गोताखोरी करने वाले हैं. इसीलिए आज विश्व भर में उनसे बेहतर लोकतान्त्रिक राजनेता नहीं है. रहा राहुल गाँधी का प्रश्न तो वह गाँधीजी की उस इच्छा को पूरा करेंगे जो उन्होंने देश को आज़ादी मिलने के बाद नेहरूजी से कही थी कि अब कांग्रेस की ज़रूरत न रही, इसे यहीं समाप्त करदो.
यह मैं इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि कांग्रेस ने लगातार डिफेंस को शक्तिशाली बनाकर लूटा है. बोफ़ोर्स की दलाली को छिपाने के लिए राहुल गाँधी राफेल में दलाली खाने का इल्जाम मोदीजी पर लगा रहे हैं. इसी सिलसिले में वह पर्रिकरजी से शिष्टाचार के नाम पर मिले और बाद में बयान दिया कि पर्रिकरजी ने बताया है कि चौकीदार यानी मोदी ने अनिल अंबानी को लाभ पहुँचाने के लिए फ्रांस सरकार पर दबाव बनाया. बात निकली है तो याद आया मेरे एक शिष्य, जो स्काटलैंड में रहता है, ने दसियों साल पहले बताया था कि राबर्ट वाड्रा जो राहुल का जीजा है और मेरे शहर मुरादाबाद से है वह इंडिया से एंटीक मूर्तियाँ लाता है और बेचता है. यानी जीजाजी की जल्दी अमीर बनने की महत्वाकांक्षा ऐसे भी पूरी हो रही थी.
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