लोकतंत्र का चौथा स्तंभ
डा. विनोद के. गुप्ता
विचारक, लेखक और मनोवैज्ञानिक
अभी नवनीत, मार्च, 2019 ने उदबोधन शीर्षक के अंतर्गत नयनतारा सहगल, अंग्रेजी की लेखिका का लेख प्रकाशित किया है. उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधार बनाकर इस प्रकार के इल्जाम सरकार पर लगाए हैं जैसे एक प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी एक बहुत बड़े डिक्टेटर हैं और वह हिन्दुओं के अतिरिक्त सभी को इस देश से खदेड़ देना चाहते हैं. मैं नयन तारा जी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ. इसलिए खुलकर बोलने में झिझक रहा हूँ.
इसी प्रकार मेरे घर “आज का आनंद” नामक समाचारपत्र आता है जिसे मैं नियमित रूप से पढ़ता हूँ. उसके सम्पादक ने भी अपने को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में स्थापित किया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में अपने सम्पादकीय में बहुत कुछ लिखा है.
मैं क्योंकि सीखना चाहता हूँ इसलिए खूब पढ़ता हूँ. वह भी जो मन को छूता है और वह भी जिसे पढ़कर उबकाई आती है. मेरा मानना है मैं कोई फाइनल व्यक्ति नहीं हूँ. फिर सच हमेशा मीठा हो कोई ज़रूरी नहीं है. कई बार बेहद कड़ुआ होता है और हमें स्वीकारना होता है. इसी प्रकार, “मानवता” शब्द बहुत ही भोथरा है. चारा घोटाला में लिप्त लालू प्रसाद यादव भी अपनी सफाई में “मानवता” की दुहाई देते हैं. यही स्थिति संस्कृति और संस्कारों की भी है.
हम भूल जाते हैं कि अंग्रेज जब अमरीका, आस्ट्रेलिया,अथवा न्यूजीलैंड गए तो उन्होंने वहाँ के मूल निवासियों को मार डाला. क्या कभी आपने रेड इंडियन्स को अमरीकी चुनाव का मुद्दआ बनते देखा है? लेकिन जब वह इंडिया आए तो उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई. मुसलमानों को सुपीरिओरिटी की घुट्टी पिलाई. आज हिन्दुस्तान का मुसलमान इसी ‘इनर सुपीरिओरिटी’ का शिकार है. बीजेपी उसे आम हिन्दु के समान जीने की आज़ादी देती है. कांग्रेस उसी इनर सुपीरिओरिटी को पोस करके चुनाव जीतने के सपने देख रही है.
उन्होंने हिंदुओं को बाँटने के लिए गणेशजी को अपना हथियार बनाया. गणेशजी ‘सन आफ दि सुआइल’ की मानसिकता को आगे बढ़ाते हैं. महात्मा गाँधी के अलावा सभी ने अंग्रेजों के एजेंडे को ही आगे बढ़ाया. बालगंगाधर तिलक ने भी अनजाने में वही किया जो अंग्रेज चाहते थे.
अखबारों में छपी ख़बरों को देखकर मैं अक्सर चिंतित हो उठता हूँ पता नहीं कब मनसे वाले राजठाकरे नारा बुलंद करें और मुझे इस बुढ़ापे में, चौहत्तर बरस की आयु में बेघर होना पड़े. अब तो मुरादाबाद वाले भी मुझे स्वीकारने से रहे. पुराने दोस्तों के अलावा मुझे कोई भी नहीं पहचानता. एक बार तो एक लड़के से पिटते-पिटते बचा हूँ. वह भी अपने मुहल्ले मैं जहाँ मैंने लगभग पंद्रह बीस बरस गुजारे थे.
अब आते हैं लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के मुद्दे पर. “आज का आनंद” के सम्पादक श्री श्याम अग्रवाल अपने सम्पादकीय में ज्योतिष की आलोचना करते हैं. उनका अगला पृष्ठ ज्योतिष को समर्पित होता है. इसके अलावा बीच के पृष्ठों पर भी लाल किताब के नुस्खे लिखे होते हैं. उनसे कभी पूछा जाए तो संभावित उत्तर होगा कि हमारे पाठक तो सभी तरह के लोग हैं हमें उनकी भी ज़रूरत को देखना है. नहीं देखेंगे तो पाठक कहाँ से आएँगे? तो भाई साहब आप क्या हैं? लोकतंत्र के नाम पर परचून का सामान बेचने वाले शब्दों के सौदागर या कुछ और?
इसका एक दूसरा अर्थ भी है कि लोग वोट देने के लिए तैयार हो गए हैं लेकिन पापुलेशन बम के चक्कर में उनके पास ऐसी समझ नहीं है कि वे अपना भला-बुरा समझ सकें उन्हें तो ज्योतिष, वास्तु, आदि के टोटके चाहिए. अब यह बात दूसरी है लोकतंत्र में अक्सर सच को छिपाया भी जाता है ताकि विकसित होने का भ्रम बनाए रखा जा सके.
वास्तव में चाहे वह प्रिन्ट मीडिया हो, इलैक्ट्रानिक मीडिया हो, लेखक हो या कोई और सभी इस तथ्य से प्रभावित हैं कि हम वह देते हैं जिसे अपनी आँखों से देख सकते हैं. यानी आँखों देखी सच्ची, कानों सुनी कच्ची.
इसकी वास्तविकता है जब सौ बिलियन यूनिट सूचना (हिन्दुस्तान की जनसंख्या को सौ से गुणा करने के बाद) हमारे पास चल कर आती है तब हमारी आँख मात्र एक यूनिट सूचना मस्तिष्क को देती है. इसी सूचना पर सारे टीवी प्रोग्राम और सिनेमा चलते हैं. हम जो सिनेमा स्टारों के दीवाने हैं वह भी इसी वास्तविकता पर निर्भर करती है. इसीलिए बेहतरीन एक्टिंग के लिए नए-नए अवार्ड दिए जाते हैं.
अमिताभ बच्चन सदी के महानायक हैं. छियत्तर बरस की उम्र में वह ‘टाप टेन’ में आते हैं. मैं एक दिन अपनी काम करने वाली बाई से पूछ बैठा, “तू जो इसकी (दक्षिण भारतीय एक्टर) दीवानी है. यदि यह तुझे प्यार करने का आफर दे तो क्या करेगी?” यह सिनेमा है सच्चाई नहीं है. यह हमारा मनोरंजन करता है और हम इसका मज़ा लेते हैं – उसका उत्तर था.
‘दीवार’ पिक्चर में अमिताभ बच्चन का डायलाग था, “मैं आज भी ज़मीन पर फेंके पैसे नहीं उठाता.” बहुत ही प्रसिद्ध हुआ था. फिर भी वोट की राजनीति में लोग शराब की बोतल, या कुछ पैसों के लिए अपना वोट बेचते हैं. यह जाति और धर्म को आधार बना कर कैंडीडेट खड़ा करना क्या है?
इसलिए मैं नयन तारा सहगलजी से अनुरोध करता हूँ कि आप अनुलोम-विलोम का अभ्यास करिए. कोशिश कीजिए कि आप इस प्रक्रिया को अपने भीतर महसूस कर सकें. तब आपको समझ में आएगा कि हमारा शरीर दूसरी इन्द्रियों की सहायता से प्रति सेकेंड एक मिलियन यूनिट सूचना ग्रहण करता है. अब थोड़ा हिसाब लगाइए किसकी सफलता की संभावना अधिक है? उसकी जो मात्र आँखों से मिली सूचना पर निर्भर करता है या फिर उसकी जो दूसरी इन्द्रियों से मिली सूचना पर निर्भर करता है?
हाँ, इस सूचना को डी-कोड करना एक मुश्किल खीर है. क्यों? इस मामले में हमारी सहायता हमारा हृदय, हमारे फेफड़े, और हमारा पेट करता है. जो हृदय रोगी है, जिसे साँस से सम्बन्धित विकार हैं या फिर जिसका पेट खराब रहता है – इन सभी को यह सब कर पाना संभव नहीं हो सकता. लेकिन ये राजनीति के माहिर खिलाड़ी होते हैं. इनके साथ कैंसर के रोगियों को और जोड़ लीजिए.
इसीलिए मैं मानता हूँ – जो नेता है वह मानव सभ्यता का अवगुण है क्योंकि उसने धरती को मातृ भूमी या पितृ भूमी में बाँट दिया. जो राजनेता है वह सभ्यता का अभिशाप है क्योंकि वह ‘सन आफ दि सुआइल’ की मानसिकता के चलते देश को टुकड़ों में बाँट देता है. राजनेता यदि अपराध में लिप्त है या फिर साइकोपैथ (जिसे अपराध बोध नहीं होता) अथवा आतंकवादी है वह धरती के लिए ख़तरा है. ऐसे लोगों को चिकित्सा की बेहतरीन सुविधाएँ मुहय्या कराने के बजाए प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया के हवाले कर देना चाहिए. आप क्या समझती हैं हाफिज सईद, मसूद अजहर, जैसे आतंकवादी जेल से छूटने के बाद सुधर जाएँगे?
हाँ, कभी-कभी हृदय परिवर्तन भी होता है. ऐसे लोगों को मौका मिलना चाहिए. लेकिन यह कौन तय करेगा? सुप्रीम कोर्ट? जी नहीं. बल्कि यह जिम्मेदारी मनोवैज्ञानिकों को मिलनी चाहिए. किसको? जिन्हें टीवी पर दिखाया जाता है? तो फिर किसे? जिसमें भविष्य का निर्माण करने की क्षमता हो. जो भविष्य में झाँक नहीं सकता, वह क्या खाकर भविष्य का निर्माण करेगा?
महात्मा गाँधी क्योंकि मेरे बचपन से रोल माडेल रहे. हालाँकि, मेरे पिताजी के अनुसार वह बहुत ही चालाक व्यक्ति थे. यह जो गाँधीवाद है यह राजनेताओं का, खास तौर पर नेहरूजी का खड़ा किया गया है. मेरे लिए तो उन्होंने “इच्छा करना” सिखाया. जिसे उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी तक सीमित रखा. अन्यथा यदि उन्होंने सन इकत्तीस के बाद नेहरू को अपना वारिस बनाने पर समय बरबाद न करके अंग्रेजों के बनाए कानूनों को देश के अनुरूप बनाया होता तो इस दुनिया में आतंकवाद की समस्या कभी खड़ी ही न होती. हो सकता है तब वह हाई ब्लड प्रेशर की गिरफ्त में भी न आते. सच में नेहरू को वारिस बनाने की उनकी जद्दो-जहद उनके लिए भारी पड़ गई.
इसे ऐसे देखिए. अंग्रेजों ने जिन कानूनों को बनाया वे उनका हित साधन में सक्षम थे. भगत सिंह जैसे लोग देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करना चाहते थे. वे कोई अपराधी नहीं थे. जीवन मूल्यों के प्रति अपने कमिटमेंट को लेकर तो भगत सिंह महात्मा गाँधी के बराबर खड़े हो जाते हैं. तेईस बरस की उम्र में हँसते हँसते फाँसी पर चढ़ जाना. वह भी तब जब चन्द्रशेखर आज़ाद ने संदेश भेजा कि हम तुम्हें बीच रास्ते से बाहर निकाल लेंगे. भगत सिंह ने सुझाव को स्वीकार न करके फाँसी पर झूल जाना पसंद किया. क्यों? बहरों को सुनाने के लिए ज़ोर से आवाज करना ज़रूरी होता है.
आज अंग्रेजों के वे कानून आतंकवाद को हैंडल करने में पूरी तरह से नाकाम साबित हो रहे हैं. क्यों? वे केवल देश भक्तों को सजा देने के लिए सक्षम थे. गाँधीजी एक वकील की हैसियत से इस तथ्य को समझते होंगे. मगर वह तो लोकतंत्र की संभावनाओं को ही समाप्त कर गए. आम आदमी से जुड़ने के लिए वह अपने भीतर गोताखोरी करते थे. आज वही काम इलैक्ट्रानिक मीडिया, फेस बुक तथा दूसरे सोशियल मीडिया बड़े आराम से कर लेते हैं. यानी चुनाव जीतना तकनालाजी के बेहतरीन इस्तेमाल पर निर्भर करता है. कम से कम मध्य प्रदेश के चुनावों में तो यही साबित हुआ.
आज कन्हैया जैसे देश तोड़ने वालों को मीडिया वाले भगत सिंह के बराबर खड़ा करते हैं. मुझे तो लगता है आज देश में दो प्रकार की विचारधारा चल रही है. एक – संपूर्ण राष्ट्रीयता की. दूसरी – दो राष्ट्र की जिसे जिन्ना ने विकसित किया था. कन्हैया जैसे लोग उसी विचार धारा के समर्थक हैं. मैं तो देख रहा हूँ अधिकतर कालम लिखने वाले अंग्रेजी के पत्रकार इसी श्रेणी में आते हैं. शुरू करते हैं बड़ी ईमानदारी से और बीच में अपरोक्ष रूप से घुसेड़ देते हैं अंतर्राष्ट्रीय सोच के नाम पर दो राष्ट्र की थ्योरी.
इसलिए मेरा मानना है कि आप लिखिए क्योंकि आपमें लिखने का दम है लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पक्षपात मत कीजिए. आज जब सारी दुनिया से कम्यूनिज़्म विदा हो गया तो हमारे कम्यूनिस्ट जो कम्यूनिस्ट कम दुकानदार ज्यादा लगते हैं. जो पत्नी को छोड़ कर सेक्रेटरी से ब्याह रचा लेते हैं. जो अपने बच्चों को तो विदेशी स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजते हैं और आदिवासियों और पीछे रह गए लोगों को बगावत के हथियार थमाते हैं. उनकी आप पैरवी क्यों करती हैं?
इस धरती की सुरक्षा के बारे मैं सोचिए. यह जो देश का पापुलेशन बम फूटने के कगार पर है उससे पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में लिखिए. लोगों को समझाइए कैसे प्रकृति के द्वारा पूछे गए प्रश्नों यथा, “तुझे ज़िंदा रखूँ तो क्यों? तेरी मदद करूँ तो क्यों?” कैसे वे वे अपने जीवन की क्वालिटी आफ लाइफ को बेहतर बना सकते हैं?
यह सलाह मैं इसलिए दे पा रहा हूँ क्योंकि मैंने इस देश के अस्सी हजार लोगों के व्यक्तित्व का अध्ययन किया है. इसमें उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले के आदिवासी जो स्किल्ड, सेमी–स्किल्ड और अन-स्किल्ड कर्मचारी थे सम्मिलित थे. इसमें पालिटिकल नेता, लेखक, बीस हजार पब्लिक सेक्टर के कर्मचारी, आधिकारी और टाप मैनेजमेंट के लोग शामिल थे. ओएनजीसी में बीस बरसों तक मैंने चार सौ टाप मैनेजमेंट के अधिकारियों के व्यवहार की मानीटरिंग की है. लगभग दो दशक चेयरमैन (ओएनजीसी) को बताता रहा हूँ कि कौन मैनेजर रिजल्ट देगा और कौन नहीं देगा?
इसलिए मेरी सलाह है कि बजाए लोगों के असंतोष को भड़काने या फिर उस पर ठप्पा लगाने के उनकी ज़िन्दगी की ‘क्वालिटी आफ लाइफ’ को बेहतर बनाने की दिशा में काम कीजिए. चाहें तो आप www.magicthroughheart.com की वेब साइट पर जाकर आप मेरा रेगुलर टेस्ट भर दीजिए. मैं आपको आपकी यूनीकनेस को समझने और स्वयं को प्यार करने में मदद करूँगा. अभी आप जो लिखती हैं मात्र पोलिटिकल लिखती हैं. फिर आप वास्तव में मानव जीवन की गुणवत्ता को बेहतरीन बनाने के लिए लिखेंगी.
क्षमा याचना के साथ,
डा. विनोद के. गुप्ता
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