बात 1980 की है पद्म विभूषण स्वर्गीय (कर्नल) सत्यपाल वाही को चेयर मैन (ओएनजीसी) के पद के लिए चुन लिया था लेकिन वह थे सीसीआई में ही. मुझे क्योंकि वह पसंद करते थे, इसलिए एक दिन मैंने उनसे पूछा, “आपका मैनेज करने का ढंग क्या है?” उनका उत्तर था, “किसी भी आर्गेनाइजेशन में तीन तरह के लोग होते हैं. पहली श्रेणी में वे लोग आते हैं जो कुड्कुड़ाते रहेंगे लेकिन सिर झुका कर काम करते रहेंगे. इन्हें कुछ मिले या न मिले, फिर भी सिर झुका कर काम करते रहेंगे. इनको मैं छेड़ता नहीं हूँ बस काम करने देता हूँ. दूसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जिन्हें लालच से अथवा धमका कर काम कराया जा सकता है. तीसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जिनसे कैसे भी काम नहीं लिया जा सकता. मैं क्योंकि यह मानकर चलता हूँ कि हर आदमी भला आदमी होता है, इसलिए मैं ऐसे लोगों को संदेह का लाभ देता हूँ. इसके बाद भी यदि यह प्रमाणित हो जाए कि यह आदमी सुधर नहीं सकता, तो फिर मैं किसी भी तरह का लिहाज नहीं करता. मेरी कोशिश होती है कि मैं दूसरी श्रेणी का दायरा बढ़ा सकूँ.”

ऐसे तो मैंने अपने जीवन में 80,000 हजार स्त्री-पुरुषों के जीवन का अध्ययन किया है. लेकिन कर्नल वाही के साथ रहकर 20,000 अधिकारी, कर्मचारी और कार्पोरेट लोगों के जीवन की व्यक्तित्व परीक्षणों की मदद से बीस वर्षों तक मानीटरिंग की है. इसलिए समझ सका कि मनोविज्ञान की दृष्टि से वह मैनेजमेंट का कौनसा फंडा दे रहे थे? पहली श्रेणी में वे लोग आते हैं जो अंतर्मुखी और  सृजनात्मक होते हैं. विज्ञान के क्षेत्र में अल्बर्ट आईंस्टीन और राजनीति के क्षेत्र में केवल महात्मा गांधी आते हैं. इन्हें एक प्रकार से ब्रेकथ्रू देना होता है. इन्हें बस काम करने देना चाहिए. दूसरी श्रेणी में बिरलिएंट और बहिर्मुखी लोग आते हैं जो अपनी प्राब्लम-सालविंग, बेहतरीन स्मृति शक्ति, वाक-पटुता से लोगों को आकर्षित करना आता है. हमारी तमाम व्यवस्थाएँ इन्हीं के हितों को साधने पर आधारित हैं. शिक्षा के क्षेत्र में यही बाजी मारते हैं. लगभग कार्पोरेट अथवा प्रशासनिक सेवाओं में भी इन्हीं का चयन होता है.

ये लोग ही देश और समाज की उम्मीद भी हैं और यही लोग मानवता के लिए ख़तरा भी हैं. उम्मीद उनसे है जिन्होंने स्वयं को पद की दृष्टि से तैयार कर लिया है. ख़तरनाक वे हैं जो मात्र और मात्र स्वार्थी बनकर रह गए हैं. अच्छे मैनेजर की विशेषता होती है कि उसमें उन लोगों पहचानने की शक्ति होती है जो उसके मिशन को पूरा कर सकते हैं.

कर्नल वाही में मैंने देखा कि तात्कालिक दृष्टि से वह ऐसे लोगों को पहचान लेते थे लेकिन लम्बे चलने वाले मामलों में उनके निर्णय सटीक नहीं बैठते थे. ऐसे मामलों में हरामी किस्म के लोगों ने उनकी भलमनसाहत का फायदा उठाया. यही वजह थी कि कार्पोरेट प्रोमोशन्स में उन्होंने मेरी रिकमंडेशन को जस का तस स्वीकार किया. अंत में तो उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए भी मुझसे सलाह ली.

अब तनिक सीबीआई में चली उठा-पटक की बात करें. सीबीआई के चीफ आलोक वर्मा के ऊपर आरोप थे कि उन्होंने रिश्वत ली. राकेश अस्थाना जो गुजरात कैडर के हैं जिन्हें प्रधान मंत्री का करीबी माना जाता है उनपर भी रिश्वत लेने का आरोप है. क्यों? केवल इसलिए कि इनकी पुरानी निष्ठा को आधार बनाया गया था. बीता हुआ कल आज के बारे में तो अंदाजा देता है लेकिन इसके आधार पर भविष्य के बारे में नहीं जाना जा सकता. नतीजा? जो आजकल चल रहा है.

आजकल तो मैं केवल कर्नल वाही को याद करता रहता हूँ क्योंकि हर कोई इतना दमदार नहीं होता कि वह उनके समान मनोवैज्ञानिक की क्षमताओं का इस्तेमाल कर सके. मैंने उनके रिटायरमेंट के बाद ओएनजीसी में सोलह बरस नौकरी की. डायरेक्टर (एच आर) को बता दिया कि चेयरमैन बनने के लिए उन्हें किसी दूसरे आर्गेनाइजेशन में जाना होगा. यहाँ उनका कोई चांस नहीं बनता.इसके बाद वह लगभग नौ बरस ओएनजीसी में रहे और सबसे शक्तिशाली डायरेक्टर रहे फिर भी चेयरमैन नहीं बने. इसके बाद भी वह मुझे इस्तेमाल नहीं कर पाए. ऐसा लगता है कि या तो मोदीजी भी कहीं फँसे हैं या फिर उनके संपर्क में कोई मुझ जैसा मनोवैज्ञानिक नहीं आया है. वरना कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इतना न उछल रहे होते कि वे देश के प्रधानमंत्री को चोर कहते.

डाक्टर विनोद के. गुप्ता; चिंतक, लेखक व मनोवैज्ञानिक; मोबाइल – 09004389812, ईमेल: vinode2006@yahoo.com, वेबसाइट: www.magicthroughheart.com

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