metoomovement OR #MeToo Movement
“मी-टू” के प्रभाव का दो तरह के लोगों के कैरियर और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर सबसे अधिक पड़ने वाला है. दोनों ही प्रकार के मीडिया उनकी छीछालेदर नैतिकता और ‘वूमैन-एम्पावरमेंट’ की दृष्टि से कर ही रहे हैं. जबकि ज़रूरत है कि पत्नी को भी पति के समान आर्गाज़्म का सुख मिलने का अधिकार मिलना चाहिए. यदि ऐसा हो जाए तो स्त्री अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकती है. क्योंकि यह संभव नहीं है इसलिए हम सभी किसी न किसी रूप में कभी न कभी अपराधी प्रमाणित हो जाएँगे. आम आदमी को कौन पूछता है? इसलिए राजनेता व अभिनेता को इसका अपराधी बनाकर अधिक लाभ उठाया जा सकता है. ऐसे में मैं, नैतिकता की दुहाए देने के बजाए, आपके सामने बायोलाजिकल दृष्टिकोण रखना चाहता हूँ.
इससे पहले मैं अपनी बात शुरू करूँ मैं बताना चाहता हूँ. फिल्मों से जुड़े लोगों की मृत्यु का कारण – डिप्रेशन, अस्थमा, कैंसर व कार्डियोवस्कुलर रोगों से होती हैं. जो लोग “मी-टू” के अपराधी पाए जाते हैं. उन में से अधिकतर की पर्दे पर छवि बहुत ही पाक-साफ होती है. जो विलेन का चरित्र अधिक निबाहते हैं उनके बारे में ऐसी शिकायत कम ही सुनने को मिलती है. कारण? इन्हें शूटिंग के दौरान इसी तरह का काम करना पड़ता है. इसी प्रकार जिनके चरित्र पर कम दाग होते हैं वे कैंसर से मरते पाए जाते हैं. जिनको दिलफेंक की श्रेणी में गिना जाता है वे हार्ट अटैक से मरते पाए जाते हैं. राजकुमार और संजीव कुमार का उदाहरण इस तथ्य को प्रमाणित करता दिखता है.
राजनीति में तो शायद ही कोई हो जो बीमारियों से न मरता हो. उनके हिस्से में एक दो नहीं अनेकों बीमारियाँ आती हैं. उदाहरण के लिए अटल बिहारी बाजपेयी और मोदी जी को लिया जा सकता है. दोनों के बारे में मशहूर है कि दोनों ही जबरदस्त माइक्रो मैनेजर हैं. अटलजी के अधिकतर साथी अल्जाइमर के शिकार हुए. मोदीजी के साथी गुर्दे की बीमारी के शिकार बने. इस मामले में जार्ज फर्नांडीस व जसवंत सिंह और सुषमा स्वराज व अरुण कुमार जेटली का नाम लिया जा सकता है.
“प्यार” आदमी के निजी स्तर पर इच्छाओं के निखार और समाजीकरण का परिणाम है जो सबके बस की बात नहीं. ख़ासतौर पर राजनीति और मनोरंजन के व्यापार में. लेकिन यह जो सैक्स है यह जीवन की सच्चाई है. जब तक सैक्स ग्लैण्ड सुप्रीमेसी में काम न करे कोई भी कैरियर की ऊँचाई नहीं छू सकता. जो भी कोई राजनीति या फिर मनोरंजन के व्यापार में शामिल होता है वह वहाँ साधु बनने के लिए नहीं जाता. वह कैरियर की ऊंचाइयों को छूने की कोशिश करता है. यही ज़रूरी भी है.
आत्मविकास की तलाश करने वाले लोग प्रशंसा के भूखे नहीं हुआ करते. जिन्हें अपनी सफलता का स्वाद भीड़ को इकट्ठा करके मिलता हो वे वास्तव में मनोरंजन के व्यापार में ही लिप्त होते हैं. जो मनोरंजन के व्यापार का हिस्सा है उसके हिस्से में वासनाएँ आती ही हैं. जो उन्हें दबाता है वह कैंसर का शिकार हो जाता है. वरना उसके खिलाफ कोई न कोई तो शिकायत दर्ज कराती ही है.
हम क्योंकि ढकोसला पसंद समाज में रहते हैं इसलिए नैतिकता का ढिंढोरा पीटते रहते हैं. पश्चिम में ओपेननेस है इसलिए राजनीति वाले ज़रूर ‘मी – टू” को इस्तेमाल करते हैं. वरना वहाँ बहुत हंगामा नहीं होता. जितने बाबा भीड़ इकट्ठी करते हैं उनमें से ज्यादातर बलात्कार के अपराधी पाए गए. जो अभी तक पाक-साफ हैं तो केवल इसलिए कि किसी ने उनके खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं कराई है. आसाराम बापू, गुरमीतसिंह राम रहीम, रामपाल, आदि इसी श्रेणी में आते हैं.
प्रश्न उठता है – क्या कोई तरीका है कि आदमी कैरियर की ऊंचाइयाँ भी छूए और इन घपलों से भी दूर रहे. तो मैं कहूँगा कि “हाँ” है. जिस प्रकार वे एक्टिंग से पहले रिहर्सल करते हैं. करैक्टर में डूबने के लिए उन लोगों के बीच जाकर सीखते हैं जो उस करैक्टर को रिप्रेजेंट करते हैं. उसी प्रकार उन्हें मन में उठने वाली इच्छाओं को समझना होगा, महसूस करना होगा. और इसे इस ढंग से महसूस करना होगा जैसे वे उसका साक्षात्कार कर रहे हों. लाँगटर्म में हो सकता हो कि मन का चरित्र से कोई संबंध हो लेकिन फौरी तौर पर मन को दबाने पर मुश्किलें ही सामने आती हैं. बेहतर है कि मन में आई इच्छा को जी लिया जाए. एक आसान तरीका यह भी हो सकता है कि आप उस इच्छा के जीने को कागज पर उतार लें. बाद में उस कागज को फाड़ कर जला दें. सब हमारे दोस्त नहीं होते. आगे बढ़ने वालों के दुश्मनों की गिनती कुछ ज्यादा ही होती है. मैं जानता हूँ मुझे इसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ी है.
डाक्टर विनोद के. गुप्ता;
विचारक, लेखक व मनोवैज्ञानिक,
लेखक व मनोवैज्ञानिक; मोबाइल – 09004389812,
ई मेल: vinode2006@yahoo.com, website: www.magicthroughheart.com
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